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कविता

लहू का टीका

आनंद नारायण मुल्‍ला


वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया

निगाहो दिल का अफसाना

महात्‍मा गांधी का क़त्‍ल

 

वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया

वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
तिरे नामूस पर सब कुछ लुटा देने का वक़्त आया

वह ख़ित्ता देवताओं की जहां आरामगाहें थीं
जहां बेदाग़ नक़्शे-पाए-इंसानी से राहें थीं

जहां दुनिया की चीख़ें थीं, न आंसू थे न आहें थीं
उसी को जंग का मैदां बना देने का वक़्त आया

वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
रुपहली बर्फ पर है सुर्ख़ ख़ूं की आज इक धारी

सहर की नर्म किरनों ने यहां दोशीज़गी खोई
हुई आलूदा यह मासूम दुनिया अप्‍सराओं की

अब इन नापाक धब्‍बों को मिटा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया

गिराकर हर निज़ाए-दर्मियां की चारदीवारी
सियासत की धड़ेबाज़ी, ज़बां की तफ़रिक़ाकारी

मिटा कर सूबा-ओ-ईमानो-मिल्‍लत की हदें सारी
हिमाला पर नयी सरहद बना देने का वक़्त आया

वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
हर इक आंसू का शोला जज़्ब करके दिल के ख़िर्मन में

हर इक फ़रियाद की लै ढाल कर इक अज़्मे-आहन में
हर इक नारे की बिजली करके आसूदा निशेमन में

हर इक बिजली को दुश्‍मन पर गिरा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया

हर इक बाज़ारो-कू को रज़्मगह शायद बनाना हो
हर इक दीवारो-दर पर मोर्चा शायद बनाना हो

ख़ुद अपनी किश्‍त को आतिशकदा शायद बनाना हो
हर इक चप्‍पे पे आहूती चढ़ा देने का वक़्त आया

वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
यह अहले-ख़ाना की ग़ासिब लुटेरों से लड़ाई है

यह चढ़ती रात की रौशन सवेरों से लड़ाई है
चराग़े - आदमियत की, अंधेरों से लड़ाई है

हर इक बस्‍ती में इंसां को सदा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया

निक़ाबे-सुर्ख़ के पीछे है पीली शक्‍ले-ख़ाक़ानी
वही सफ़्फ़ाक नज़रें हैं, वही है चीने पेशानी

वही चंगेज़ का जज़्बा, वही ख़्वाबे- जहांबानी
अब इन ख़्वाबों को मट्टी में मिला देने का वक़्त आया

वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
जबानाने-वतन आओ क़तार अन्‍दर कतार आओ

दिलों में आग, नज़रों में लिए बर्को-शरार आओ
बढ़ो, क़हरे-ख़ुदा अब बन के सूए-कारज़ार आओ

जलाले-ग़ैरते-क़ौमी दिखा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया

बहादुर हिन्‍द के लड़ते हैं कैसे आज दिखलाओ
रिवायाते-शुजाअत को नये कुछ बाब दे जाओ

मिटो तो दास्‍तानें हों, जियो तो ताज़दार आओ
लहू का, मां को फिर टीका लगा देने का वक़्त आया

वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया

 

निगाहो दिल का अफसाना


निगाहो दिल का अफ़साना करीब-ए-इख्तिताम आया ।
हमें अब इससे क्या आया सहर या वक्त-ए-शाम आया ।।

ज़बान-ए-इश्क़ पर एक चीख़ बनकर तेरा नाम आया,
ख़िरद की मंजिलें तय हो चुकीं दिल का मुकाम आया ।

न जाने कितनी शम्मे गुल हुईं कितने बुझे तारे,
तब एक खुर्शीद इतराता हुआ बाला-ए-बाम आया ।

इसे आँसू न कह एक याद अय्यामे गुलिस्‍ताँ है,
मेरी उम्रे रवां को उम्रे रफ़्ता का सलाम आया ।

बरहमन आब-ए-गंगा शैख कौसर ले उड़ा उससे,
तेरे होठों को जब छूता हुआ मुल्ला का जाम आया |

 

महात्‍मा गांधी का क़त्‍ल

मश्रिक़ का दिया गुल होता है, मग्रिब पे सियाही छाती है
हर दिल सुन सा हो जाता है, हर सांस की लौ थर्राती है

उत्‍तर दक्षिण पूरब, पश्चिम, हर सम्‍त से इक चीख़ आती है
नौए-इंसां शानों पे लिए गांधी की अर्थी जाती है

आकाश के तारे बुझते हैं, धरती से धुआं-सा उठता है
दुनिया को यह लगता है जैसे सर से कोई साया उठता है

कुछ देर को नब्‍ज़े-आलम भी चलते-चलते रुक जाती है
हर मुल्‍क का परचम गिरता है हर क़ौम को हिचकी आती है

तहज़ीबे-जहां थर्राती है तारीख़े-बशर शर्माती है
मौत अपने किये पर ख़ुद जैसे दिल ही दिल में पछताती है

इंसां वह उठा जिसका सानी सदियों में भी दुनिया जन न सकी
मूरत वह मिटी नक़्क़ाश से भी जो बन के दुबारा बन न सकी

देखा नहीं जाता आंखों से यह मंज़रे-इब्रतनाके-वतन [1]
फूलों के लहू से प्‍यासे हैं अपने ही ख़सो-ख़ाशाके-वतन [2]

हाथों से बुझाया ख़ुद अपने वह शोल:ए-रूहे-पाके-वतन
दाग़ इस से सियहतर कोई नहीं दामन पे तिरे अय ख़ाके-वतन

पैग़ाम अजल लाई अपने इस सबसे बड़े मुहसिन के लिए
अय वाए तुलूए-आज़ादी, आज़ाद हुए इस दिन के लिए

जब नाख़ुने-हिकमत ही टूटे, दुश्‍वार को आसां कौन करे
जब ख़ुश्‍क हो अब्रे-बारां ही शाख़ों को गुलअफ़शां कौन करे

जब शोल:ए-मीना सर्द हो ख़ुद जामों को फ़रोजां कौन करे
जब सूरज ही गुल हो जाये, तारों में चराग़ां कौन करे

नाशादे-वतन ! अफ़सोस तिरी क़िस्‍मत का सितारा टूट गया
उंगली को पकड़कर चलते थे जिसकी वही रहबर छूट गया

इस हुस्‍न से कुछ हस्‍ती में तिरी अज़्दाद [3] हुए थे आके बहम [4]
इक ख़्वाबो-हक़ीक़त का संगम, मिट्टी पे क़दम, नज़रों में इरम [5]

इक जिस्‍म नहीफ़ो-जार [6] मगर इक अज़्मे-पबानो-मुस्‍तहकम [7]
चश्‍मे-बीना, मासूम का दिल-ख़ुर्शीद नफ़स ज़ौक़े-शबनम

वह इज़्ज़ [8], गुरूरे-सुल्‍तां भी जिसके आगे झुक जा‍ता था
वह मोम कि जिससे टकराकर लोहे को पसीना आता था

सीने में जो दे कांटो को भी जा उस गुल की लताफ़त क्‍या कहिये
जो ज़हर पिये अमृत करके उस लब की हलावत [9] क्‍या कहिये

जिस सांस से दुनिया जां पाये उस सांस की निकहत क्‍या कहिये
जिस मौत पे हस्‍ती नाज़ करे उस मौत की अज़्मत क्‍या कहिये

यह मौत न थी क़ुदरत ने तिरे सर पर रक्‍खा इक ताजे-हयात
थी ज़ीस्‍त तिरी मेराजे-वफ़ा [10] और मौत तिरी मेराजे-हयात [11]

यकसां नज़दीको-दूर पे था, बाराने-फ़ैज़े-आम [12] तिरा
हर दश्‍तो-चमन हर कोहो-दिमन में गूंजा है पैग़ाम तिरा

हर ख़ुश्‍को-तरे-हस्‍ती पे रक़म है ख़त्ते-जली [13] में नाम तिरा
हर ज़र्रे में तेरा माबद [14] है हर क़तरा तीरथ धाम तिरा

इक लुत्‍फ़ो-करम के आईं में मरकर भी न कुछ तरमीम हुई
इस मुल्‍क के कोने-कोने में मिट्टी भी तिरी तक़सीम हुई

तारीख़ में कौमों की उभरे कैसे कैसे मुमताज़ बशर
कुछ मुल्‍के-ज़मीं के तख़्तनशीं कुछ तख़्ते-फ़लक [15] के ताज बसर

अपनों के लिए जामो-सहबा [16], औरों के लिए शमशीरो-तबर [17]
नर्दे-इंसां [18] पिटती ही राही दुनिया की बिसाते-ताक़त पर

मख़लूक़े-ख़ुदा की बनके सिपर [19] मैदां में दिलावर एक तू ही
ईमां के पयम्‍बर आये बहुत इंसां का पयम्‍बर एक तू ही

बाजूए-खिरद उड़ उड़के थके तेरी रिफ़अत [20] तक जा न सके
ज़िहनों की तजल्‍ली काम आई ख़ाके भी तिरे काम आ न सके

अल्‍फ़ाजो-मआनी ख़त्‍म हुए, उनवां भी तिरा अपना न सके
नज़रों के कंवल जल जल के बुझे परछाईं भी तेरी पा न सके

हर इल्‍मो-यक़ीं से बालातर तू है वह सिपहरे-ताबिन्‍दा [21]
सूफ़ी की जहां नीची है नज़र शाइर का तसव्‍वुर शर्मिन्‍दा

पस्तिए-सियासत को तूने अपने क़ामत [22] से रिफ़अत दी
ईमां की तंगख़याली को इंसान के ग़म की वुसअत दी

हर सांस से दरसे-अम्‍न [23] दिया, सर जब्र [24] पे दादे-उल्‍फ़त [25] दी
क़ातिल को भी, गो लब हिल न सके, आंखों से दुआए-रहमत दी

हिंसा को अहिंसा का अपनी पैग़ाम सुनाने आया था
नफ़रत की मारी दुनिया में इक 'प्रेम संदेसा' लाया था

इस प्रेम संदेसे को तेरे, सीनों की अमानत बनना है
सीनों से कुदूरत धोने को इक मौजे-नदामत [26] बनना है

इस मौज को बढ़ते बढ़ते फिर सैलाबे-महब्‍बत बनना है
इस सैले-रवां के धारे को इस मुल्‍क की क़िस्‍मत बनना है

जब तक न बहेगा यह धारा, शादाब न होगा बाग़ तिरा
अय ख़ाके-वतन दामन से तिरे धुलने का नहीं यह दाग़ तिरा

जाते जाते भी तू हमको इक ज़ीस्‍त का उनवां देके गया
बुझती हुई शमए-महफि़ल को फिर शोल:ए-रक़्सां देके गया

भटके हुए गामे-इंसां [27] को फिर जाद:ए-इंसां [28] देके गया
हर साहिले-जुल्‍मत को अपना मीनारे-दरख़्शां [29] देके गया

तू चुप है लेकिन सदियों तक गूंजेगी सदाए-साज़ तिरी
दुनिया को अंधेरी रातों में ढारस देगी आवाज़ तिरी

शब्दार्थ:

[1] देश की दयनीय दशा [2] घास-फूस [3] पूर्वज

[4] एक [5] स्‍वर्ण [6] जर्जर शरीर [7] जवान और दृढ़ संकंल्‍प

[8] विनम्रता [9] मिठास [10] वफ़ा की पराकाष्‍ठा [11] जीवन की मेराज

[12] दया की वारिश [13] बड़े अक्षर [14] अराधना-घर [15] आकाश का सिंहासन

[16] शराब और जाम [17] तलवार और क़ब्र [18] चौसर की गोट-इंसान

[19] ढाल [20] ऊंचाई [21] चमकता हुआ आकाश [22] क़द [23] शांति का पाठ

[24] अत्‍याचार [25] उल्‍फ़त की दाद [26] लाज की मौज [27] इंसान के क़दम

[28] इंसानी मार्ग [29] प्रकाशमान मीनार

 


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